Monday, February 11, 2013

उठ जाग रे मुसाफिर !

अन्नपूर्णा बाजपेयी उठ जाग रे मुसाफिर ! दुनिया में कुछ सार नहीं , दो दिन का ये खेल तमाशा । क्या राजा - रंक क्या रानी , पंडित ,महंत औ ज्ञानी । यह जग सारा अकथ कहानी , कुछ भी यहाँ करार नहीं , दुनिया में है सार नहीं । उठ जाग रे मुसाफिर !! सूरज चंदा औ सितारे , सागर, सलिल, लहर किनारे । एक दिन ये नहीं रहेंगे , बिलकुल भी आधार नही । दुनिया में है सार नहीं , उठ जाग रे मुसाफिर !! बन जा दुनिया से कुछ न्यारा , तेरा होगा तभी गुजारा । मानुष की ये काया पाई , काहे फिरता लगी लगाई । फिर मिलती यह हार नहीं , दुनिया में है सार नहीं । उठ जाग रे मुसाफिर !! Posted by सहज साहित्य at 9:15 PM Links to this post 3 comments: Labels: अन्नपूर्णा बाजपेयी, पथ के साथी Wednesday, January 23, 2013 तुमको कब पाएँगे ? रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 1 घर-द्वार सभी छूटा सपनों-सा पाला संसार यहाँ लूटा । 2 आँखों में आ घिरता चन्दा -सा माथा अब सपनों में तिरता । 3 भावों में पलते हो बस्ती के दीपक ! रजनी भर जलते हो । 4 सागर तर जाएँगे पर इतना बोलो- तुमको कब पाएँगे ? -0- Posted by सहज साहित्य at 5:26 PM Links to this post 16 comments: Labels: माहिया, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' Friday, January 18, 2013 डॉ अशोक भाटिया की कविताएँ 1-खुला दरव़ाजा उसने दहेज लिया और कहा – इसे रोको। उसने रिश्वत ली और कहा – इसे रोको। उसने प्रेमी–जोड़ों के क़त्ल का आदेश दिया और कहा – इसे रोको। वह बालिका–भ्रूण की हत्या में शामिल हुआ और कहा – इसे रोको। हमने सोचा– पहले इस आदमी को रोको। -0- 2-क़त्ल के पीछे क़ातिल क़ाली वर्दी के कमरे में हाँफता हुआ आया और बोला– क़त्ल करके आया हूँ, मुझे बचाओ।’ वर्दी बोली– दस लाख लाओ मेरे कोट की जेब में छिप जाओ।’ क़ातिल बोला– ‘ये तो ज़्यादा है।’ वर्दी बोली– ‘बचाने का वादा है। क़त्ल का तरीका मुझसे पूछकर जाते तो रुपये कम लग जाते।’ कातिल बोला– एक और क़त्ल करना है। रेट और तरीका बताओ। वर्दी ने क़ातिल के कान में तरीका बताया। खुशी में क़ातिल गदगद हो बाहर निकल आया। -0- Posted by सहज साहित्य at 7:45 PM Links to this post 7 comments: Labels: पथ के साथी Friday, January 11, 2013 धूप छिड़क दो ना आज सहज साहित्य पर डॉ•भावना कुँअर और अनिता ललित की रचनाएँ दी जा रही हैं। इनकी अन्य रचनाएँ पढ़ने के लिए आप इनके रेखांकित नाम को क्लिक कर सकते हैं। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' 1-छिड़क दो ना (चोका) डॉ•भावना कुँअर दुःखी ये मन सीला आँसुओं -संग प्यार की तुम धूप,छिड़क दो ना! मासूम रात अँधेरे ने जकड़ी , रोशनी तुम थोड़ी ,छिड़क दो ना! मन के बंद इन दरवाजों पे तुम यादों की बूँदें,छिड़क दो ना! साँसों की डोर ढूँढने लगी ,तुम रोशनी,जीवन की जरा, छिड़क दो ना। -0- कोहरे में लिपटी ग़ज़ल सी खड़ी हूँ(कविता) अनिता ललित कोहरे में लिपटी ग़ज़ल सी खड़ी हूँ, मैं अपने ही साये में खो सी गयी हूँ...! साँसों में चढ़ते एहसासों के रेले, धुएँ-से ठहरते हैं ख़्वाबों के मेले...! अल्फ़ाज़ खुद में लिपट से गये हैं, सिहरते, लरज़ते..सिमट से गये हैं..! कोई धुन सजाओ.., मुझे गुनगुनाओ.., चाहत की नर्म धूप..ज़रा तुम खिलाओ...! नज़र में तुम्हारी मुस्कानें जो चमकें.., मेरी सर्द हस्ती को शबनम बना दें...... पिघल कतरा- कतरा ... हर लफ्ज़ से मैं बरसूँ, तुम फूल, मैं शबनम बन... तुमको निखारूँ ! कोहरे में लिपटी ग़ज़ल -सी खड़ी हूँ, मैं अपने ही साये में खो सी गयी हूँ...! -0- Posted by सहज साहित्य at 9:03 PM Links to this post 9 comments: Labels: अनिता ललित, डॉ भावना कुँअर, पथ के साथी Tuesday, January 8, 2013 सर्दी की धूप रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 1 जले अलाव फ़रार हुई धूप काँपती छाँव । 2 पकती चाय बिखरती खुशबू लहके आँच । 3 रात है सोई ओढ़े कोहरे -बुनी गरम लोई । 4 ताल में तारे लगाकर डुबकी सिहरे-काँपें । 5 धूप बिटिया खेले आँख मिचौली हाथ न आए । 6 रात गुज़ारें ये बेघर बेचारे नभ के नीचे । 7 सर्दी की धूप गोदी में आ बैठी नन्हे शिशु-सी । 8 पल में उड़ी चंचल तितली-सी फूलों को चूम ।

Thursday, August 27, 2009

'आतंकवाद और भारतीय मीडिया' नामक किताब बाजार में : आतंकवाद पूरी दुनिया में अब संगठित रूप ले चुका है। इसने अपनी कामयाबी के लिए सूचना क्रांति का भी खतरनाक तरीके से भरपूर फायदा उठाया है। नवंबर 2008 में मुंबई के आतंकी हमले की बर्बरता को पूरी दुनिया ने किस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिये खुली आंखों से देखा था, यह सच किसी से छिपा नहीं है। उन दिनों मीडिया के इस मनमानेपन को लेकर सत्ता के गलियारों से देश भर के आम बुद्धिजीवियों तक काफी तीखी प्रतिक्रियाएं सुनने में आई थीं। तब कई बार माना गया था कि उस आतंकी हमले का लाइव प्रसारण नितांत गैर-जिम्मेदराना था। ऐसा नहीं होना चाहिए था। तभी से यह जानना भी जरूरी लगने लगा था कि आतंकवाद की घटना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित संस्थाओं, विषयों यानी भारतीय राज्य, समाज, कानून, पुलिस, खुफिया तंत्र, अंतररा्ष्ट्रीय सहयोग, मानवाधिकार आदि पर मीडिया का दृष्टिकोण क्या होना चाहिए? मुंबई के 26/11 के बाद बाटला हाउस मुठभेड़ और अंतुले प्रकरण भी कुछ इसी तरह की सुर्खियों में रहे थे। तब भी मीडिया के उचित-अनुचित को लेकर देश भर में उंगलियां उठी थीं। इन्हीं संदर्भों को रेखांकित करती हुई आतंकवाद पर हिंदी, अंग्रेजी तथा उर्दू समाचार पत्रों के दृष्टिकोणों की गहरी छानबीन करने वाली एक नई किताब आई है 'आतंकवाद और भारतीय मीडिया'। इसके लेखक हैं अनिल सिंह रावत
पुस्तक के प्रारंभ में लिखा हैं कि 'आतंकवाद एवं मीडिया के बीच संबंधों पर पूरे विश्व में बहस चल रही है। अनेक प्रश्न उठाए जा रहे हैं। क्या आतंकवाद मीडिया का इस्तेमाल अपने आतंकी संदेशों को फैलाने के लिए कर रहा है? क्या मीडिया आतंकवादी घटनाओं, आतंकवादियों के साक्षात्कारों एवं उनके भेजे संदेशों का प्रसारण अपनी प्रसार संख्या या टीआरपी बढ़ाने के लिए कर रहा है? ' वह मानते हैं कि ये दोनों ही प्रश्न आधारहीन नहीं हैं। ऐसी घटनाओं के पाठक, दर्शक सिर्फ वे ही लोग नहीं होते, जो आतंकवाद प्रभावित क्षेत्र में होते हैं। जब मीडिया उन सूचनाओं का माध्यम बनता है, वे लोग भी उन हालात से अनभिज्ञ नहीं रह जाते, जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहता है। यही पर मीडिया माध्यम आतंकवाद के फायदे की बात बन जाता है। जब बिन लादेन मीडिया ठिकानों को ई-मेल, वीडियो टेप उपलब्ध कराता है, उसका एकमात्र मकसद होता है, अपने घोषित उद्देश्य के तहत समर्थकों का नया समूह जुटाना। मीडिया की आंतरिक व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता के दौर में आतंकवाद की यह मंशा और आसानी से परवान चढ़ती नजर आने लगती है। इन्हीं स्थितियों को जानते-देखते हुए मीडिया को आतंकवाद का आक्सीजन कहा जाने लगा है। बात यहां तक पहुंच चुकी है कि आतंकवाद संबंधी खबरों को सेंसरशिप के दायरे में लाया जाना चाहिए, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि मीडिया पर पाबंदी उचित नहीं। उसे स्वविवेक और स्वनियंत्रण के लिए आजाद रखना ही होगा।
सच है कि समय के साथ आतंकवाद के प्रति भारतीय मीडिया के दृष्टिकोण में बदलाव आया है, लेकिन दूसरी सच्चाई यह भी है कि भारत की आतंकी स्थिति योरप से भिन्न है। इसको भारतीय मीडिया विशेष परिस्थिति एवं विशेष कारणों की उपज मानता है। विदेशी मीडिया का इस पूरे मामले पर भिन्न नजरिया सामने आता है, लेकिन वहां भी आतंकवाद पर अखबारों की कोई निर्धारित नीति नहीं है। ऐसे दोराहे पर यह पुस्तक 'आतंकवाद और भारतीय मीडिया' हमें बताती है कि लोकतंत्र की सलामती के लिए राज्य का मीडिया के प्रति क्या रुख होना चाहिए और मीडिया का आतंकवाद, राज्य व जनता के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है। डेढ़ सौ से ज्यादा पृष्ठों वाली इस पुस्तक की कीमत अस्सी रुपये है। मीडिया से जुड़े वर्ग के लिए यह बेहद तथ्यपरक, उपयोगी और पठनीय है। पुस्तक मिलने का पता- भारत नीति प्रतिष्ठान, डी-51, पहली मंजिल, हौज खास, नई दिल्ली-16

Saturday, August 22, 2009